कार्यस्थल पर यौन शोषण: #मी टू या विकल्प
कार्यस्थल पर यौन शोषण: #मी टू या विकल्प
ज्योति,
एम.ए. हिन्दी,
दिल्ली विश्वविद्यालय
महिलाएँ जब घर से बाहर काम करने जाती हैं, तो उन्हें स्वावलंबी होने का
मौका मिलता है और वो स्वतंत्र होती हैं| परंतु, ज़्यादातर काम की जगहों पर
उन्हें सुरक्षित माहौल नहीं मिलता है| अक्सर काम छूट जाने के डर से महिलाएँ
यौन-शोषण करने वाले मालिकों और सह-कर्मियों के खिलाफ आवाज़ नहीं
उठाती हैं और कई बार काम की जगह बदल लेने पर भी महिलाओं को सुरक्षित
माहौल नहीं मिलता है| अगर कोई पीड़ित महिला यौन-उत्पीड़न के विरोध में
आवाज़ भी उठाती है तो अक्सर पीड़िता को ही अपराधी ठहराया जाता है| इस
माहौल में ज़्यादातर महिलाओं को न्याय ही नहीं मिल पाता है|
यौन-शोषण के खिलाफ महिलाएँ हमेशा ही आवाज़ उठाती रही हैं| इसी
सुगबुगाहट के तौर पर मी टू अभियान की शुरुआत हुई थी| तराना बर्क जो
अमेरिका की सामाजिक कार्यकर्ता हैं, उन्होंने अश्वेत कामगार महिलाओं
(विशेषकर वंचित समुदाय) पर यौन हिंसा और हो रहे शोषण के खिलाफ 20वीं
शताब्दी के पहले दशक में मी टू अभियान की शुरुआत की। अपने मूल स्वरूप में
मी टू कामगार महिलाओं के एक संघर्ष समूह के रूप में उभरा और महिलाओं को
उनके कार्यस्थलों पर यौन शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने में इसने एक शक्ति
दी| अक्टूबर 2017 में, हॉलीवुड निर्माता हार्वे विंसटीन द्वारा अपने ऊपर हुए
यौन-शोषण के प्रतिकार के तौर पर अभिनेत्रियों ने इसका प्रयोग किया| इसके
साथ ही इसके अर्थ में भी परिवर्तन आया| पहले जहाँ यह महिलाओं के सामूहिक
संघर्षों का प्रतीक था, वहीं #(हेश.टैग) मी टू से इसका अर्थ उच्च वर्ग की महिलाओं
का उनके व्यक्तिगत संघर्षों में तब्दील हो गया| भारत मे बॉलीवुड अभिनेत्री
तनुश्री दत्ता द्वारा नाना पाटेकर पर यौन-शोषण का आरोप लगाए जाने के बाद
#मी टू अभियान चर्चा का विषय बना| यह अभियान सिने जगत, मीडिया और
अकादमिक जगत में काम कर रही महिलाओं के बीच काफी प्रचलित रहा|
इस अभियान का मुख्य बिन्दु था कि किस प्रकार महिलाओं के कार्यस्थलों को
यौन-शोषण से सुरक्षित बनाया जा सके| कार्यस्थलों पर महिलाओं के साथ यौन-
शोषण उनकी श्रम-क्षेत्र में बढ़ोत्तरी के साथ और भी व्यापक हुआ| 1970 के
दशक में ‘यौन शोषण’ को पहली बार लिन फार्ले ने परिभाषित किया| वो उस
वक्त अमरीका के कॉर्नेल विश्वविद्यालय में पढ़ा रही थीं| कामगार घर से आयीं
लिन फार्ले ने महिलाओं के साथ कार्यस्थलों पर हो रहे शोषण की व्यापकता को
चिन्हित किया और इससे संघर्ष करने के लिए एक समूह ‘वर्किंग विमन यूनाइटेड’
का गठन किया| इस समूह के गठन के पीछे मुख्य विचार था कि कामगार
महिलाओं की कार्यस्थलों पर सुरक्षा उनकी एकता के बल पर ही संभव हो सकती
है|
इसी काल-खंड में अमरीका में महिलाओं के एक हिस्से ने उच्च वेतन वाले कार्यों में
भी प्रवेश किया| इन महिलाओं को भी यौन-शोषण की समस्या का सामना करना
पड़ा और इस व्यापक समस्या का कोई हल निकालने की ओर प्रयास शुरू हुए|
समस्या का हल आंतरिक शिकायत समितियों (ICC) के रूप में आया, जिसकी
परिकल्पना 1970 के दशक में कैथरीन मैकिनन द्वारा की गयी| मैकिनन ने यौन-
शोषण पर न्यायिक विमर्श का विकास करने और यौन-शोषण को एक अपराध के
रूप में परिभाषित करने में बड़ी भूमिका निभाई| उन्होने इस समस्या को खत्म
करने के लिए सरकार की कार्यस्थलों में दखल की वकालत की, ताकि यौन-
शोषण के मामलों को व्यक्तिगत स्तर पर सुलझाकर उन्हें रफा-दफा न किया जा
सके| अपराधियों पर कारवाई सुनिश्चित करने के लिए त्रिपक्षीय समितियों के
गठन की बात कही गयी, जिसके तहत यौन-शोषण के मामलों में मालिक,
कामगार और एक निष्पक्ष प्रतिनिधि द्वारा मामले की छान-बीन और उसपर
कार्रवाई करने की वकालत की गयी| इस प्रक्रिया में श्रम और लिंग-भेद संबंधी
मुद्दों का अवांछनीय पृथक्कीकरण भी हुआ|
भारत में 1997 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा विशाखा मामले में निर्णय से आंतरिक
शिकायत समितियों को संस्थागत रूप मिला| 2013 में केंद्र सरकार द्वारा
कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण)
अधिनियम द्वारा इन समितियों को अनिवार्य किया गया| आंतरिक शिकायत
समिति का विचार महिलाओं के सामूहिक संघर्षों से निकली थी, परंतु प्रश्न यहाँ
उठता है कि यह समितियाँ क्या सभी वर्ग और स्तरों की महिलाओं को इंसाफ
दिला सकने में सक्षम हो पायीं हैं?
आज महिला कामगारों का बहुसंख्यक हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र में कार्य करता
है| यह असंगठित क्षेत्र है और यहाँ पर श्रम कानूनों का पालन न के बराबर होता
है| कामगारों के अधिकारों का हनन इस क्षेत्र में एक आम बात है| इसका बड़ा
कारण सरकारों द्वारा इस क्षेत्र की अनदेखी है और यहाँ पर मालिकों का खुले तौर
पर दबदबा होता है| श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए जिन संघर्ष समूहों या
ट्रेड यूनियनों की ज़रूरत होती है, वो इन क्षेत्रों में या तो हैं ही नहीं या अगर हैं
भी तो उनको महिलाओं के मुद्दों पर संघर्ष करने की इजाज़त नहीं है, क्योंकि
महिलाओं को प्रभावित करने वाले मुद्दों को श्रम से जुड़े मुद्दों से इतर मानने की
प्रक्रिया को आंतरिक शिकायत समितियों ने सशक्त किया है|
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि महिलाओं के खिलाफ यौन-शोषण इतनी व्यापक
समस्या क्यों है? यौन-शोषण का संबंध गैर-बराबर कार्य-सम्बन्धों से है, जहां
महिलाओं की अधीन और असहाय स्थिति का फायदा मालिकों या पुरुष सह-
कर्मियों द्वारा उठाया जाता रहा है| इससे लड़ने के लिए ही महिलाओं के संघर्ष
समूह उभर कर आए| मगर, कामकाजी महिलाओं के समूह में उच्च वेतन वाली
महिलाओं के प्रवेश से इन महिलाओं की यौन-शोषण की समस्या को गैर-बराबर
कार्य-सम्बन्धों से इतर एक पृथक समस्या के रूप में देखा जाने लगा| जहाँ
बहुसंख्यक महिलाओं के लिए यह श्रम-सम्बन्धों से जुड़ा प्रश्न था, उसके विपरीत
उच्च वर्ग की महिलाओं के लिए गैर-बराबर संबंधों को खत्म करने का कोई सवाल
ही नहीं था, क्योंकि उनका उच्च-वर्गीय स्तर इसी गैर-बराबरी पर टिका था|
इसलिए ट्रेड यूनियन मार्का संघर्ष समूह जो कामगार महिलाओं की उनकी
समस्याओं पर एकता की बात करते हुए श्रम-सम्बन्धों पर सवाल खड़े करते थे,
उनके महिलाओं के मुद्दों को उठाने के अधिकार को दबाया जाने लगा| और
महिलाओं के मुद्दों को एक अलग समस्या के रूप में देखने की कवायद भी इसी
कड़ी के रूप में शुरू हुई|
आंतरिक शिकायत समितियों के ढांचे में मालिकों का प्रतिनिधित्व उनका दबदबा
सुनिश्चित करता है| ज़्यादातर कार्यस्थलों में यह समितियाँ मालिकों द्वारा ही
चयनित की जाती हैं और उनके ही इशारों पर मामलों में कार्रवाई करती हैं| ऐसे
में कार्यस्थल के अंदरूनी शक्ति-संबंध के दायरे में ही यौन-शोषण के मामले देखे
जाते हैं और उन्हें दबाया जाता है| एक और बात सुनिश्चित होती है कि महिलाओं
के समूहिक संघर्ष की जगह समितियों को न्याय-निर्णायक की भूमिका मिल जाती
है, जो उन गैर-बराबर श्रम-सम्बन्धों पर सवालिया निशान नहीं लगाते हैं,
जिनसे यौन-शोषण पनपता है| अनौपचारिक क्षेत्र में इन समितियां के बनने की
संभावना ही नहीं होती है, क्योंकि यहाँ पर जब सरकार द्वारा श्रम-अधिकारों को
ही सुनिश्चित नहीं किया जाता है, तो महिलाओं की समस्याओं पर सरकार का
रवैया बिलकुल ही उदासीन होता है|
मी टू अभियान के उभार के पीछे आंतरिक शिकायत समितियों को महिलाओं की
यौन-शोषण की समस्याओं को खत्म कर पाने मे विफलता एक बड़ा कारण रही
है| इसलिए अभिजात महिलाओं के एक हिस्से में इन समितियों से अलगाव पैदा
हुआ| परंतु, क्या यह सच्चाई नहीं है कि बहुसंख्यक महिलाएं पहले से ही इस
आंतरिक शिकायत समिति प्रणाली के बाहर थीं और उनके लिए अपनी
समस्याओं से निपटने के लिए सामूहिक एकता ही एक रास्ता थी? गैर-बराबर
श्रम-सम्बन्ध जो महिलाओं के यौन-शोषण की परिस्थितियों को सशक्त करते हैं,
उनको यह समितियाँ कुसूरवार नहीं ठहराती है| इसलिए जहाँ पर यह समितियाँ
कार्य भी कर रही हैं, वहाँ पर व्याप्त शक्ति-सम्बन्धों से पार न जा पाना इनकी
सीमा साफ उजागर करता है| ऐसे में, ‘यौन-शोषण’ को परिभाषित करने वाली
लिन फार्ले ने 18 अक्टूबर 2017 के न्यू यॉर्क टाइम्स मे अपने लेख में भी यह
कहा है कि उन्होने इस प्रत्यय को नाम दिया, मगर इसको कॉर्पोरेट द्वारा चुराकर
अपना बना लिया गया|
#मी टू अभियान यौन शोषण के खिलाफ महिलाओं की एक आवाज़ है, परंतु क्या
यह यौन-शोषण के खिलाफ महिलाओं के सामूहिक संघर्ष के स्थान पर (उच्च
वर्गीय) महिलाओं के व्यक्तिगत आत्मबल को वरीयता नहीं देता है? आज जब #
मी टू के तहत कुछ महिलाएं अपने यौन हिंसा की बात को मोबाइल व इंटरनेट
जैसे अन्य संसाधनों से सांझा कर सकती है, तो क्या ऐसी महिलाएं जो अपनी
बात को रख पाने में असमर्थ है जो कि गांव, बस्ती जैसे इलाके में रहती है वह
अपने दुख को सांझा कर पा रही हैं? क्या मी टू अभियान कुछ उच्च वर्गीय
महिलाओं की प्रतीकार की अभिव्यक्ति बनकर नहीं रह गया है? ऐसे में, तराना
बर्क का यह कथन प्रासंगिक है कि कामगार वर्ग की महिलाओं के सामूहिक संघर्ष
अभियान से मी टू उच्च वर्गीय प्रतिकार का द्योतक बन चुका है|
अंत मे यह मालूम होता है कि यह अभियान अश्वेत कामगार महिलाओं की
सामूहिक प्रतिरोध/ संघर्ष प्रणाली से परिवर्तित होकर उच्च वर्ग की महिलाओं की
अभिव्यक्ति का साधन-मात्र बन गया है| तराना बर्क ने बोस्टन ग्लोब को दिये गए
अपने हालिया साक्षात्कार में यह कहा है कि वो विभिन्न वर्गों की महिलाओं की
समस्याओं को तोलना नहीं चाहतीं, मगर मी टू अभियान के बदले हुए स्वरूप ने
उच्च वर्गीय महिलाओं की समस्याओं द्वारा बहुसंख्यक निम्न-वर्गीय महिलाओं की
समस्याओं को नज़रअंदाज़ करने का कार्य किया है| इस संदर्भ में हमें महिला
कामगारों के यौन-शोषण के खिलाफ शुरुआती संघर्षों से प्रेरणा लेनी होगी ताकि
कार्यस्थलों पर सुरक्षा का माहौल तैयार करने के लिए आंतरिक शिकायत
समितियों के बरक्स संघर्ष एवं समर्थन समूहों का निर्माण किया जा सके| इन्हीं
समर्थन एवं संघर्ष समूहों द्वारा महिलाओं के लिए कार्यस्थलों पर सुरक्षा तो
सुनिश्चित होगी ही, साथ ही शोषणकारी श्रम-सम्बन्ध जिनके कारण यौन-शोषण
पनपता-फूलता है, उसको भी खत्म करना संभव हो पाएगा|
ज्योति,
एम.ए. हिन्दी,
दिल्ली विश्वविद्यालय
महिलाएँ जब घर से बाहर काम करने जाती हैं, तो उन्हें स्वावलंबी होने का
मौका मिलता है और वो स्वतंत्र होती हैं| परंतु, ज़्यादातर काम की जगहों पर
उन्हें सुरक्षित माहौल नहीं मिलता है| अक्सर काम छूट जाने के डर से महिलाएँ
यौन-शोषण करने वाले मालिकों और सह-कर्मियों के खिलाफ आवाज़ नहीं
उठाती हैं और कई बार काम की जगह बदल लेने पर भी महिलाओं को सुरक्षित
माहौल नहीं मिलता है| अगर कोई पीड़ित महिला यौन-उत्पीड़न के विरोध में
आवाज़ भी उठाती है तो अक्सर पीड़िता को ही अपराधी ठहराया जाता है| इस
माहौल में ज़्यादातर महिलाओं को न्याय ही नहीं मिल पाता है|
यौन-शोषण के खिलाफ महिलाएँ हमेशा ही आवाज़ उठाती रही हैं| इसी
सुगबुगाहट के तौर पर मी टू अभियान की शुरुआत हुई थी| तराना बर्क जो
अमेरिका की सामाजिक कार्यकर्ता हैं, उन्होंने अश्वेत कामगार महिलाओं
(विशेषकर वंचित समुदाय) पर यौन हिंसा और हो रहे शोषण के खिलाफ 20वीं
शताब्दी के पहले दशक में मी टू अभियान की शुरुआत की। अपने मूल स्वरूप में
मी टू कामगार महिलाओं के एक संघर्ष समूह के रूप में उभरा और महिलाओं को
उनके कार्यस्थलों पर यौन शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने में इसने एक शक्ति
दी| अक्टूबर 2017 में, हॉलीवुड निर्माता हार्वे विंसटीन द्वारा अपने ऊपर हुए
यौन-शोषण के प्रतिकार के तौर पर अभिनेत्रियों ने इसका प्रयोग किया| इसके
साथ ही इसके अर्थ में भी परिवर्तन आया| पहले जहाँ यह महिलाओं के सामूहिक
संघर्षों का प्रतीक था, वहीं #(हेश.टैग) मी टू से इसका अर्थ उच्च वर्ग की महिलाओं
का उनके व्यक्तिगत संघर्षों में तब्दील हो गया| भारत मे बॉलीवुड अभिनेत्री
तनुश्री दत्ता द्वारा नाना पाटेकर पर यौन-शोषण का आरोप लगाए जाने के बाद
#मी टू अभियान चर्चा का विषय बना| यह अभियान सिने जगत, मीडिया और
अकादमिक जगत में काम कर रही महिलाओं के बीच काफी प्रचलित रहा|
इस अभियान का मुख्य बिन्दु था कि किस प्रकार महिलाओं के कार्यस्थलों को
यौन-शोषण से सुरक्षित बनाया जा सके| कार्यस्थलों पर महिलाओं के साथ यौन-
शोषण उनकी श्रम-क्षेत्र में बढ़ोत्तरी के साथ और भी व्यापक हुआ| 1970 के
दशक में ‘यौन शोषण’ को पहली बार लिन फार्ले ने परिभाषित किया| वो उस
वक्त अमरीका के कॉर्नेल विश्वविद्यालय में पढ़ा रही थीं| कामगार घर से आयीं
लिन फार्ले ने महिलाओं के साथ कार्यस्थलों पर हो रहे शोषण की व्यापकता को
चिन्हित किया और इससे संघर्ष करने के लिए एक समूह ‘वर्किंग विमन यूनाइटेड’
का गठन किया| इस समूह के गठन के पीछे मुख्य विचार था कि कामगार
महिलाओं की कार्यस्थलों पर सुरक्षा उनकी एकता के बल पर ही संभव हो सकती
है|
इसी काल-खंड में अमरीका में महिलाओं के एक हिस्से ने उच्च वेतन वाले कार्यों में
भी प्रवेश किया| इन महिलाओं को भी यौन-शोषण की समस्या का सामना करना
पड़ा और इस व्यापक समस्या का कोई हल निकालने की ओर प्रयास शुरू हुए|
समस्या का हल आंतरिक शिकायत समितियों (ICC) के रूप में आया, जिसकी
परिकल्पना 1970 के दशक में कैथरीन मैकिनन द्वारा की गयी| मैकिनन ने यौन-
शोषण पर न्यायिक विमर्श का विकास करने और यौन-शोषण को एक अपराध के
रूप में परिभाषित करने में बड़ी भूमिका निभाई| उन्होने इस समस्या को खत्म
करने के लिए सरकार की कार्यस्थलों में दखल की वकालत की, ताकि यौन-
शोषण के मामलों को व्यक्तिगत स्तर पर सुलझाकर उन्हें रफा-दफा न किया जा
सके| अपराधियों पर कारवाई सुनिश्चित करने के लिए त्रिपक्षीय समितियों के
गठन की बात कही गयी, जिसके तहत यौन-शोषण के मामलों में मालिक,
कामगार और एक निष्पक्ष प्रतिनिधि द्वारा मामले की छान-बीन और उसपर
कार्रवाई करने की वकालत की गयी| इस प्रक्रिया में श्रम और लिंग-भेद संबंधी
मुद्दों का अवांछनीय पृथक्कीकरण भी हुआ|
भारत में 1997 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा विशाखा मामले में निर्णय से आंतरिक
शिकायत समितियों को संस्थागत रूप मिला| 2013 में केंद्र सरकार द्वारा
कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण)
अधिनियम द्वारा इन समितियों को अनिवार्य किया गया| आंतरिक शिकायत
समिति का विचार महिलाओं के सामूहिक संघर्षों से निकली थी, परंतु प्रश्न यहाँ
उठता है कि यह समितियाँ क्या सभी वर्ग और स्तरों की महिलाओं को इंसाफ
दिला सकने में सक्षम हो पायीं हैं?
आज महिला कामगारों का बहुसंख्यक हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र में कार्य करता
है| यह असंगठित क्षेत्र है और यहाँ पर श्रम कानूनों का पालन न के बराबर होता
है| कामगारों के अधिकारों का हनन इस क्षेत्र में एक आम बात है| इसका बड़ा
कारण सरकारों द्वारा इस क्षेत्र की अनदेखी है और यहाँ पर मालिकों का खुले तौर
पर दबदबा होता है| श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए जिन संघर्ष समूहों या
ट्रेड यूनियनों की ज़रूरत होती है, वो इन क्षेत्रों में या तो हैं ही नहीं या अगर हैं
भी तो उनको महिलाओं के मुद्दों पर संघर्ष करने की इजाज़त नहीं है, क्योंकि
महिलाओं को प्रभावित करने वाले मुद्दों को श्रम से जुड़े मुद्दों से इतर मानने की
प्रक्रिया को आंतरिक शिकायत समितियों ने सशक्त किया है|
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि महिलाओं के खिलाफ यौन-शोषण इतनी व्यापक
समस्या क्यों है? यौन-शोषण का संबंध गैर-बराबर कार्य-सम्बन्धों से है, जहां
महिलाओं की अधीन और असहाय स्थिति का फायदा मालिकों या पुरुष सह-
कर्मियों द्वारा उठाया जाता रहा है| इससे लड़ने के लिए ही महिलाओं के संघर्ष
समूह उभर कर आए| मगर, कामकाजी महिलाओं के समूह में उच्च वेतन वाली
महिलाओं के प्रवेश से इन महिलाओं की यौन-शोषण की समस्या को गैर-बराबर
कार्य-सम्बन्धों से इतर एक पृथक समस्या के रूप में देखा जाने लगा| जहाँ
बहुसंख्यक महिलाओं के लिए यह श्रम-सम्बन्धों से जुड़ा प्रश्न था, उसके विपरीत
उच्च वर्ग की महिलाओं के लिए गैर-बराबर संबंधों को खत्म करने का कोई सवाल
ही नहीं था, क्योंकि उनका उच्च-वर्गीय स्तर इसी गैर-बराबरी पर टिका था|
इसलिए ट्रेड यूनियन मार्का संघर्ष समूह जो कामगार महिलाओं की उनकी
समस्याओं पर एकता की बात करते हुए श्रम-सम्बन्धों पर सवाल खड़े करते थे,
उनके महिलाओं के मुद्दों को उठाने के अधिकार को दबाया जाने लगा| और
महिलाओं के मुद्दों को एक अलग समस्या के रूप में देखने की कवायद भी इसी
कड़ी के रूप में शुरू हुई|
आंतरिक शिकायत समितियों के ढांचे में मालिकों का प्रतिनिधित्व उनका दबदबा
सुनिश्चित करता है| ज़्यादातर कार्यस्थलों में यह समितियाँ मालिकों द्वारा ही
चयनित की जाती हैं और उनके ही इशारों पर मामलों में कार्रवाई करती हैं| ऐसे
में कार्यस्थल के अंदरूनी शक्ति-संबंध के दायरे में ही यौन-शोषण के मामले देखे
जाते हैं और उन्हें दबाया जाता है| एक और बात सुनिश्चित होती है कि महिलाओं
के समूहिक संघर्ष की जगह समितियों को न्याय-निर्णायक की भूमिका मिल जाती
है, जो उन गैर-बराबर श्रम-सम्बन्धों पर सवालिया निशान नहीं लगाते हैं,
जिनसे यौन-शोषण पनपता है| अनौपचारिक क्षेत्र में इन समितियां के बनने की
संभावना ही नहीं होती है, क्योंकि यहाँ पर जब सरकार द्वारा श्रम-अधिकारों को
ही सुनिश्चित नहीं किया जाता है, तो महिलाओं की समस्याओं पर सरकार का
रवैया बिलकुल ही उदासीन होता है|
मी टू अभियान के उभार के पीछे आंतरिक शिकायत समितियों को महिलाओं की
यौन-शोषण की समस्याओं को खत्म कर पाने मे विफलता एक बड़ा कारण रही
है| इसलिए अभिजात महिलाओं के एक हिस्से में इन समितियों से अलगाव पैदा
हुआ| परंतु, क्या यह सच्चाई नहीं है कि बहुसंख्यक महिलाएं पहले से ही इस
आंतरिक शिकायत समिति प्रणाली के बाहर थीं और उनके लिए अपनी
समस्याओं से निपटने के लिए सामूहिक एकता ही एक रास्ता थी? गैर-बराबर
श्रम-सम्बन्ध जो महिलाओं के यौन-शोषण की परिस्थितियों को सशक्त करते हैं,
उनको यह समितियाँ कुसूरवार नहीं ठहराती है| इसलिए जहाँ पर यह समितियाँ
कार्य भी कर रही हैं, वहाँ पर व्याप्त शक्ति-सम्बन्धों से पार न जा पाना इनकी
सीमा साफ उजागर करता है| ऐसे में, ‘यौन-शोषण’ को परिभाषित करने वाली
लिन फार्ले ने 18 अक्टूबर 2017 के न्यू यॉर्क टाइम्स मे अपने लेख में भी यह
कहा है कि उन्होने इस प्रत्यय को नाम दिया, मगर इसको कॉर्पोरेट द्वारा चुराकर
अपना बना लिया गया|
#मी टू अभियान यौन शोषण के खिलाफ महिलाओं की एक आवाज़ है, परंतु क्या
यह यौन-शोषण के खिलाफ महिलाओं के सामूहिक संघर्ष के स्थान पर (उच्च
वर्गीय) महिलाओं के व्यक्तिगत आत्मबल को वरीयता नहीं देता है? आज जब #
मी टू के तहत कुछ महिलाएं अपने यौन हिंसा की बात को मोबाइल व इंटरनेट
जैसे अन्य संसाधनों से सांझा कर सकती है, तो क्या ऐसी महिलाएं जो अपनी
बात को रख पाने में असमर्थ है जो कि गांव, बस्ती जैसे इलाके में रहती है वह
अपने दुख को सांझा कर पा रही हैं? क्या मी टू अभियान कुछ उच्च वर्गीय
महिलाओं की प्रतीकार की अभिव्यक्ति बनकर नहीं रह गया है? ऐसे में, तराना
बर्क का यह कथन प्रासंगिक है कि कामगार वर्ग की महिलाओं के सामूहिक संघर्ष
अभियान से मी टू उच्च वर्गीय प्रतिकार का द्योतक बन चुका है|
अंत मे यह मालूम होता है कि यह अभियान अश्वेत कामगार महिलाओं की
सामूहिक प्रतिरोध/ संघर्ष प्रणाली से परिवर्तित होकर उच्च वर्ग की महिलाओं की
अभिव्यक्ति का साधन-मात्र बन गया है| तराना बर्क ने बोस्टन ग्लोब को दिये गए
अपने हालिया साक्षात्कार में यह कहा है कि वो विभिन्न वर्गों की महिलाओं की
समस्याओं को तोलना नहीं चाहतीं, मगर मी टू अभियान के बदले हुए स्वरूप ने
उच्च वर्गीय महिलाओं की समस्याओं द्वारा बहुसंख्यक निम्न-वर्गीय महिलाओं की
समस्याओं को नज़रअंदाज़ करने का कार्य किया है| इस संदर्भ में हमें महिला
कामगारों के यौन-शोषण के खिलाफ शुरुआती संघर्षों से प्रेरणा लेनी होगी ताकि
कार्यस्थलों पर सुरक्षा का माहौल तैयार करने के लिए आंतरिक शिकायत
समितियों के बरक्स संघर्ष एवं समर्थन समूहों का निर्माण किया जा सके| इन्हीं
समर्थन एवं संघर्ष समूहों द्वारा महिलाओं के लिए कार्यस्थलों पर सुरक्षा तो
सुनिश्चित होगी ही, साथ ही शोषणकारी श्रम-सम्बन्ध जिनके कारण यौन-शोषण
पनपता-फूलता है, उसको भी खत्म करना संभव हो पाएगा|
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